लगभग 1000 सन् से छत्तीसगढ़ी भाषा में साहित्य सृजन की परंपरा शुरू हो चुकी थी,
जिसे डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने कालक्रमों में निम्नानुसार विभाजित किया है -
1. गाथा युग - (संवत् 1000 से 1500)
2. भक्ति युग - (संवत् 1500 से 1900)
3. आधुनिक युग - (संवत् 1900 से वर्तमान तक)
गाथा युग (संवत् 1000 से 1500 तक)
संवत् 1000 से 1500 तक छत्तीसगढ़ में विभिन्न गाथाओं की रचना हुई। ये गाथाएँ
प्रेम व वीरता के भाव से परिपूर्ण रही है। इन गाथाओं की लिपिबद्ध परंपरा नहीं
रही है तथा यह पीढ़ी - दर - पीढ़ी मौखिक रूप से अभिरक्षित होती आई हैं। आधुनिक
युग में ही इन गाथाओं को लिपिबद्ध किया गया। छत्तीसगढ़ की प्राचीन प्रेम प्रधान
गाथाओं में केवला रानी, अहिमन रानी, रेवा रानी और राजा वीर सिंह की गाथाएँ
प्रमुख हैं। छत्तीसगढ़ की धार्मिक और पौराणिक कथाओं में फुलबासन और पंडवानी आते
हैं।
• प्रेम प्रधान गाथायें -
छत्तीसगढ़ी की प्राचीन प्रेम प्रधान गाथाओं में अहिमन रानी, केवला रानी, रेवा
रानी और राजा वीर सिंह की गाथायें प्रमुख हैं। इन गाथाओं का आकार पर्याप्त
दीर्घ है। इनके वस्तु विन्यास तथा घटनाक्रम के नियोजन की शैली हिन्दी के
वीरगाथा कालीन ग्रंथों की शैली का स्मरण करा देती हैं। इनका मूल अंश बहुत
अल्पमात्रा में उपलब्ध है और जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये गाथायें
आरंभ में प्रबंध काव्य की शैली पर रची गयी थी। इनमें वीर गाथाकालीन प्रबंधकाव्य
रूढ़ियों का परिपालन भी दिखता है। ये सभी गाथायें नारी प्रधान हैं तथा नारी
जीवन के असहाय और दुःखपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालती हैं। इनमें तंत्र - मंत्र
तथा पारलौकिक शक्तियों का भी विस्तार से चित्रण मिलता है। स्मरण है कि अपने युग
की सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण करने में गाथायें सफल रही हैं।
• धार्मिक तथा पौराणिक गाथायें -
यद्यपि छत्तीसगढ़ी की प्रायः सभी गाथाओं में धर्म से संबंधित वर्णन मिलते हैं
परंतु 'फूलवासन' और 'पंडवानी' नामक गाथाएँ धार्मिक एवं पौराणिक पात्रों को ही
लेकर लिखी गयी है। फूलबासन में सीता तथा लक्ष्मण की कथा है, जिसमें सीता द्वारा
लक्ष्मण से स्वप्न में देखे गये फूलबासन नामक फूल को लाने का अनुरोध करती है।
लक्ष्मण अनेक कठिनाइयों को पार करने के उपरांत पूर्णकाम होकर वापस लौटते हैं।
यह गाथा सूफी कवियों के काव्य की याद दिलाती है, जिसमें उन्होंने अपने मत विशेष
के प्रचार के लिये हिन्दुओं की पौराणिक गाथाओं का स्वच्छंद नियोजन किया था। ठीक
ऐसी ही स्वच्छंद दृष्टि पंडवानी की रचना में भी दिखायी देती है । इसमें पांडवों
की कथा के आलंबन से हरतालिका व्रत या तीजा के अवसर पर द्रोपदी के मायके जाने की
अमिट साध के माध्यम से छत्तीसगढ़ी नारी की शाश्वत आकांक्षा का चित्रण किया गया
है।
• छत्तीसगढ़ी आदिकालीन साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ -
• प्रेम प्रधान गाथाओं, वीर गाथाओं एवं नारी प्रधान गाथाओं का वर्णन है।
• गाधाएँ प्रबंध - काव्य की शैली पर रखी गयी।
• सभी गाधाऐं नारी प्रधान एवं नारी जीवन के असहाय दुखपूर्ण क्षणों को विशेष
महत्व देती है।
• तंत्र - मंत्र एवं परलौकिक शक्तियों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
• धार्मिक एवं पौराणिक गाथाओं के माध्यम से लोक जीवन की मौलिक इच्छाओं का वर्णन
किया गया है।
भक्ति युग (संवत् 1500 से 1900 तक)
इस दौर में छत्तीसगढ़ी में भारत की ही तरह राजनीतिक दृष्टि से उलट - फेर होता
रहा और हिन्दी भाषा की ही तरह छत्तीसगढ़ी में भी इस दौर में भक्ति तथा मुस्लिम
आक्रमण को दर्शाने वाली रचनाओं की सृष्टि हुई। मध्य युग की वीर गाथाओं में
फूलकुंवर देवी गाथा और कल्याण साथ की वीरगाथा प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त
गोपल्ला गीत, रायसिंह के पवारा, ढोलामारू और नगेसर कइना के नाम से लघु - गाथाएँ
भी लिखी गई। साथ ही इस दौर में लोरिक - चंदा व सरवन गीत के नाम से गाथाओं की
रचना हुई।
छत्तीसगढ़ी मध्यकालीन साहित्य की प्रमुख विषेशताएँ -
1. प्रमुख गाथाएँ वीर रस एवं श्रृंगार रस से ओत - प्रोत है।
2. फूलकुंबर की गाथा में वीरांगना फूलकुंवर के मुसलमानों से किये गये युद्ध का
चित्रण किया गया है।
3. इस काल की प्रमुख विशेषता छत्तीसगढ़ में कबीर पंथ की स्थापना रही।
4. इस काल में भक्ति आंदोलन की धारा प्रवाहित हुई, जिससे भक्तिपरक साहित्य का
सृजन हुआ।
5. इस युग में धार्मिक एवं सामाजिक गीत धारा का शुभारंभ कबीर प्रभावित आंचलिक
संप्रदायों एवं पंथों के माध्यम से होता है।
आधुनिक छत्तीसगढ़ी साहित्य (1900 से अब तक)
हिन्दी के आधुनिक काल के साहित्य की ही तरह छत्तीसगढ़ी में भी आधुनिक काल में
काव्य साहित्य, गद्य साहित्य, उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक आदि का सम्यक विकास
हुआ।
छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य का उद्भव एवं विकास -
छत्तीसगढ़ी काव्य, छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की संस्कृति व हिन्दी के शिष्ट काव्य
की सभ्यता का समन्वित स्वरूप है। छत्तीसगढ़ी शिष्ट साहित्य का प्रारंभ 20 वीं
शताब्दी को माना जाता है। यद्यपि छत्तीसगढ़ी के प्रथम प्रमाणित कवि को लेकर
समीक्षकों में मतभेद हैं तथापि छत्तीसगढ़ी लोक साहित्य की परम्परा को अलग कर
दिया जाय, तो छत्तीसगढ़ी - कविता का इतिहास सौ वर्षों से अधिक का नहीं है।
छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि कौन है इसके संबंध में विभिन्न विद्वानों एवं
समालोचकों का मतान्तर इस प्रकार है -
• श्री हेमनाथ - कबीरदास के शिष्य धर्मदास को मानते हैं ।
• डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा - पं. सुंदरलाल शर्मा को (रचनादानलीला,
पहलाद चरित्र, करुणा, पच्चीसी, सतनामी, भजन माला आदि।)
• श्री नंदकिशोर तिवारी - पं. लोचन प्रसाद पांडेय को (छतीसगढ़ी
कविता के लिए।)
• डॉ. विनय कुमार पाठक - नरसिंह दास वैष्णव को शिवाय (1904) रचना
के लिए। इस आधार पर डॉ. विनय पाठक एवं अधिकांश छत्तीसगढ़ी रचनाकार नरसिंह दास को
छत्तीसगढ़ी का प्रथम कवि मानते हैं।
छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य को प्रमुखतः तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है -
1. शैशव काल (सन् 1900-1925 तक) - प्रमुख काव्य साहित्यकार - पं.
सुंदरलाल शर्मा, नरसिंह दास वैष्णव, लोचन प्रसाद पाण्डेय, शुकलाल पाण्डेय आदि।
2. छत्तीसगढ़ी साहित्य का विकास काल (1925-1950 तक) - इस काल के
अंतर्गत प्यारेलाल गुप्त, द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' आदि आते हैं।
3. छत्तीसगढ़ी साहित्य का प्रगति प्रयोगवादी युग (1950 से अब तक) -
इस काल के अंतर्गत कुंजबिहारी चौबे, हेमनाथ यदु, हरि ठाकुर, विनय कुमार पाठक
आदि आते हैं। हिन्दी के आधुनिक काल के साहित्य की ही तरह छत्तीसगढ़ी में भी
आधुनिक काल में काव्य साहित्य व गद्य साहित्य का सम्यक विकास हुआ।
पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन परम्परा की शुरूआत की। इन्होने
छत्तीसगढ़ी में प्रथम नाटक, कलीकाल की रचना की। प्रथम छत्तीसगढ़ी प्रबन्ध काव्य
ग्रन्थ छत्तीसगढ़ी दानलीला है, इसके रचनाकार सुन्दरलाल शर्मा है। छत्तीसगढ़ी
व्यंग्य लेखन की शुरूआत शरद कोठारी जी ने की।
1 Comments
Nice information sahab
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