बस्तर का दशहरा विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक पर्व है जो प्रत्येक वर्ष विजयादशमी के दौरान बस्तर में मनाया जाता है। बस्तर में दशहरे की शुरुआत काकतीय वंश के राजा पुरुषोत्तम देव के द्वारा की गई थी। बस्तर दशहरा शेष भारत से भिन्न है क्योंकि शेष भारत में दशहरा रावण के वघ को सत्य की विजय के प्रतीक के रूप में मनाते हैं जबकि बस्तर दशहरा दंतेश्वरी देवी के प्रति समर्पित है।
यह पर्व श्रावण अमावस्या से लेकर आश्विन शुक्ल त्रयोदशी को समाप्त होता है। अर्थात् यह 75 दिनों तक चलता है जिसमें प्रमुख 13 दिवस विभिन्न रस्मों को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। बस्तर दशहरा का विवरण निम्न प्रकार से है -
• प्रारंभकर्ता - पुरूषोत्तम देव (1408 से 1439 ई.)
• प्रारंभ - श्रवण अमावस्या (हरेली पर्व)
• समापन - आश्विन शुक्ल पक्ष चतुर्दशी
• कुल अवधि - 75 दिन
• प्रमुख रस्म - 13 दिन तक
• प्रथम कार्यक्रम - पाट जात्रा
• प्रथम रस्म - काछन गादी
• अंतिम रस्म - मुरिया दरबार
• तुपकी - इसका आकार बंदूक जैसा होता है, जिससे भगवान जगन्नाथ को सलामी दिया जाता है, इसका निर्माण धुर्वा एवं भतरा जनजाति द्वारा किया जाता है।
पाट जात्रा
• अवसर - श्रावण अमावस्या (हरेली पर्व)
• अर्थ - टुलरू खोटला (रथ निर्माण की लकड़ी की पूजा)
• यह बस्तर दशहरा की प्रथम कार्यक्रम है। जिसमें उस लकड़ी की पूजा की जाती है जिससे रथ का निर्माण किया जाता है।
• लकड़ी लाने का दायित्व - अगरवरा, कचोरापाटी एवं राकेरा परगना के गांव
• रथ बनाने वाले बढ़ई - झार उमरगांव के
• रथ बनाने वाले लोहार - बड़ा उमरगांव के
• रथ खींचने वाली रस्सी - करंजी, सोनाबाल एवं केशपाल ग्राम के निवासी।
डेरी-गड़ाई
• अवसर - भादो शुक्ल पक्ष द्वादश या त्रयोदश
• सिरहासार भवन जगदलपुर में साल वृक्ष की दो डेरियों (टहनी) को स्थापित करना, डेरी गड़ाई रस्म कहलाता है।
काछन गादी/रणदेवी
• अवसर - आश्विन अमावस्या
• अर्थ - काछन देवी को गद्दी प्रदान करना, काछन देवी की गद्दी बेलबूटों के कांटों से बनी होती है।
• पूजा - काछन देवी की, बस्तर दशहरा की शुरूआत काछन देवी की पूजा से होता है।
• संवाहिका - महरा कन्या
• विशेष - बस्तर दशहरा के निर्विघ्न समाप्त होने की कामना व आशीर्वाद महरा समुदाय की इष्टदेवी काछन माता से काछन गुड़ी में लेते हैं। इस गुड़ी में उसी दिन 9 वर्ष तक की मिरगान कुंवारी कन्या के ऊपर काछन देवी आती है।
रैला पूजा व नवरात्र
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष प्रथमा
• रैला पूजा - काछन गादी कार्यक्रम के उपरांत मिरगान जाति की महिलाएँ रैला पूजा करती हैं।
• नवरात्र - दंतेश्वरी माता, मावली माता व कंकालीन देवियों के मंदिर में कलश की स्थापना कर ब्राह्मणों द्वारा यह पूजा पूर्ण विधि-विधान से कराई जाती है।
जोभी बिठाना
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष प्रथमा
• अर्थ - हल्बा समुदाय का कोई एक सदस्य दशहरा के निर्विघ्न सम्पन्न होने के लिए 9 दिन तक व्रत रखकर योग साधना में बैठता है जिसे जोगी बिठाई कहते हैं। सामान्यतः आमाबाल एवं पराली गांव के निश्चित घरों से हल्बा जाति के लोग यहां परंपरागत रूप से बैठते हैं।
• स्थान - सिरहासार (जगदलपुर)
• प्रमुख रस्म - कलश स्थापना, पुजारी की नियुक्ति
• विशेष - सात मांगुर मछली अर्पण की प्रथा।
रथ परिक्रमा
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष द्वितीया से सप्तमी
• लोक नृत्य - गौर लोकनृत्य (मुण्डा जनजाति द्वारा)
• विशेष - मां दंतेश्वरी के छत्र को रथ पर विराजित कर नगर भ्रमण कराया जाता है। इसके पश्चात् दुर्गा अष्टमी को निशाजात्रा कार्यक्रम आयोजित होता है। बस्तर दशहरे में 4 पहिए के फूलस्थ को कचोरापाटी एवं अगरवरा परगने के लोग तथा 8 पहिए वाले रैनी रथ को किलेपाल के माड़िया खींचते हैं।
• नोट - इस पर्व की रथयात्रा के दौरान दंतेश्वरी देवी की विशेषकर पूजा की जाती है।
बेल पूजा
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष सप्तमी
• विशेष - इसमें मंदिर से लगे बेल वृक्ष की पूजा की जाती है।
दुर्गा अष्टमी/निशाजात्रा
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष अष्टमी
• विशेष - दुर्गा अष्टमी के दिन निशाजात्रा का कार्यक्रम रखा जाता है। जिसमें जुलूस जगदलपुर नगर के इतवारी बाजार से पूजा मण्डप तक पहुंचता है।
जोगी उठाई
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष नवमी
• विशेष - इस रस्म में 9 दिन पूर्व से बैठे जोगी को भेंट प्रदान कर योग साधना से उठाया जाता है।
मावली परघाव
• अवसर - आश्विन शुक्ल पक्ष नवमी
• अर्थ - मावली देवी का स्वागत करना
• विशेष - बस्तर के कादिया पूर्व इष्टदेवी मावली माता को पालकी में बिठाकर दंतेवाड़ा से बस्तर लाया जाता है, जो चार माड़िया जाति के व्यक्तियों द्वारा कंधे से उठाकर लाया जाता है।
भीतर रैनी
• अवसर - विजयादशमी
• कार्यक्रम - विजयादशमी के दिन आठ पहिये वाला रथ पूर्ववर्ती रथ को नगर भ्रमण कराया जाता है। रथ परिक्रमा पूर्ण होने के उपरान्त इस रथ को प्रथा अनुसार कुमढ़ाकोट ले जाते हैं।
• विशेष - नागरिकों को रूमाल व बीड़े (पान) देकर सम्मानित किया जाता है।
बाहिर रैनी
• अवसर - आश्विन शुक्ल एकादशी
• कार्यक्रम - इस दिन कुमढ़ाकोट में राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस कार्यक्रम में धनुकांडेया की धूम होती है। भतरा जाति के लोग धनुकांडेया बनते हैं।
• विशेष - बाहिर रैनी का झूलेदार रथ कुमढ़ाकोट से सिंहद्वार की ओर अग्रसर होती है।
मुरिया दरबार
• अवसर - आश्विन शुक्ल द्वादशी
• कार्यक्रम - इसी दिन सिरहासार जगदलपुर में राजा मुरिया दरबार का आयोजन करते हैं।
• इस सभा में ग्रामवासियों की सामान्य समस्याओं पर चर्चा कर निराकरण किया जाता है।
• प्रथम बार मुरिया दरबार का आयोजन 8 मार्च 1876 में किया गया था।
काछन जात्रा
• अवसर - आश्विन शुक्ल द्वादशी
• कार्यक्रम - बस्तर दशहरा पर्व में सभी कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न होने पर काछन देवी को आभार प्रकट करने के लिए काछन जात्रा पूजा विधान किया जाता है।
कुटुंबजात्रा
• अवसर - आश्विन शुक्ल तेरस
• बस्तर दशहरा में शामिल हुए सभी स्थानीय देवी-देवताओं की विदाई की रस्म कुटुंबजात्रा कहलाता है।
गंगामुण्डा जात्रा/ओहाड़ी
• अवसर - आश्विन शुक्ल चतुर्दशी
• अर्थ - विदाई रस्म
• कार्यक्रम - मावली माता के विदाई सम्मान में गंगामुण्डा जात्रा सम्पन्न होती है। दंतेवाड़ा से लाई गई मावली माता को विदा किया जाता है।
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